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गंगा नही मानव जीवन के अस्तित्‍व पर खतरा

India 21st Century
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बीते लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर में गंगा नदी को लेकर जिस तरह से लगातार भावनात्मक भाषण दिए, उससे यह उम्मीद बंधी थी कि वे जब सत्ता में आएंगे, तो गंगा का उद्धार जरूर होगा। गंगा नदी की स्वच्छता उनकी प्राथमिकता में होगी। लेकिन अभी तक का उनका कार्यकाल बताता है कि इस मामले में उनका रवैया औरों की तरह ही है। हां, देखने-दिखाने को जरूर उनकी सरकार कुछ कवायद करती नजर आती है। करीब ढाई हजार किलोमीटर लंबी गंगा नदी देश के 29 बड़े शहरों, 23 छोटे शहरों और 48 कस्बों से होकर गुजरती है। गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए, ऐसा नहीं कि सरकारी पहल नहीं हुई। कोशिशें खूब हुईं, मगर उसका असर कहीं दिखलाई नहीं देता।

वैज्ञानिक भविष्यवाणियों को माने तो गंगा का अस्तित्व खतरे में है। पर्यावरण असंतुलन और तापमान में वृद्धि के चलते ग्लेशियर अधिक तेजी से पिघल रहे हैं। 2007 में जारी संयुक्त राष्ट्र संघ की वैज्ञानिक रिपोर्ट में कहा गया था कि बदले पर्यावरण के चलते 2030 में हिमालयी हिमनद जिसे हम ग्लेशियर कहते हैं, खत्म हो जाएंगे और गंगा सूख जाएगी।गंगा में प्रतिदिन 2 लाख 90 हजार लीटर कचरा गिरता है। जिससे एक दर्जन बीमारियां पैदा होती हैं। सबसे अधिक कैंसर जैसा खतरनाक रोग भी पैदा होता है। कैंसर के सबसे अधिक मरीज गंगा के बेल्ट से संबंधित हैं। इसके अलावा दूसरी जलजनित बीमारियां हैं। इस अभियान में सबसे बड़ी बाधा होगी गंगा में गिरने वाले शहरी और औद्योगिक कचरे को रोकना। यह समस्या हमारी सरकार और वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती है।

गंगा नदी में प्रदूषण की ओर सरकार का सबसे पहले ध्यान साल 1979 में गया। उस वक्त केंद्रीय जल प्रदूषण निवारण और नियंत्रण बोर्ड ने गंगा में प्रदूषण पर अपनी दो व्यापक रिपोर्टें पेश की थीं। इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर अप्रैल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कैबिनेट ने गंगा एक्शन प्लान को मंजूरी दी। राजीव गांधी ने गंगा को पांच साल के भीतर प्रदूषणमुक्त करने के वादे के साथ गंगा एक्शन प्लान को क्रियान्वित किया। इस प्लान के तहत उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के 25 शहरों में 261 परियोजनाएं शुरू की जानी थी। बहरहाल इस मुहिम पर अब तक कोई दो हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो गए हैं, लेकिन इतना पैसा खर्च होने और 29 सालों की कोशिशों के बाद भी गंगा पहले से ज्यादा गंदी और प्रदूषित है। भारी धन राशि खर्च करने के बाद भी गंगा एक्शन प्लान पूरी तरह से नाकाम रहा।

अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टरियों का तीन करोड़ लीटर अवशिष्ट गंगा में आकर मिलता है। कमोवेश यही हाल बनारस का है। जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी बगैर शुद्धिकरण के खुली नालियों के जरिए गंगा में मिल जाता है। दीगर बड़े शहरों की भी यही कहानी है। गंगा की सफाई पर एक रिहाइशी कॉलेनियों और कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को इसमें मिलने से कैसे रोका जाए? औद्योगिक इकाईयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं होतीं, वहीं विभिन्न राज्य सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी कल-करखानों की मनमानियों के प्रति अपनी आंखें मूंदें रहते हैं। और तो और न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी राज्य सरकारें दोषी पूंजीपतियों और कल-कारखानेदारों पर कोई कार्रवाई नहीं करतीं।

गंगा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए एक ऐसी योजना बनाने की जरूरत है, जिसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन हो और नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे एवं नदी के आसपास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल हो। गंगा किनारे बसे शहरों और उद्योगों से निकल रहे प्रदूषित जल और रासायनिक कचरे को जब तक गंगा में बहाने पर पूरी तरह रोक नहीं लग जाती, तब तक गंगा शुद्धि के नाम पर कितने भी रुपए फूंक दिए जाएं, जमीनी स्तर पर कुछ सुधार नहीं होगा।

अदालत ने न सिर्फ गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए सरकारी कार्ययोजना की देरी पर चिंता जताई, बल्कि अपनी ओर से सरकार को कुछ सुझाव भी दिए। अदालत का कहना था कि सफाई परियोजना चरणबद्ध तरीके से हो, क्योंकि एक बार में ऐसा नहीं किया जा सकता है। अदालत ने सुझाव दिया कि शुरू में सरकार को सौ किलोमीटर नदी की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद अगले हिस्से की सफाई का काम हाथ में लेना चाहिए।

सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल ने जब अदालत से गंगा सफाई की योजनाओं और तौर-तरीकों पर हलफनामा दाखिल करने के लिए दो सप्ताह का समय मांगा, तो न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि पवित्र गंगा को साफ करना तो सरकार के घोषणापत्र में शामिल है। इसे पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अदालत का यह गुस्सा वाजिब भी है।

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